
कुशल प्रशासक, बेहतर योद्धा, नारी सम्मान और दूरदर्शिता की प्रतीक रहीं लोकमाता देवी अहिल्याबाई होलकर ने अपने शासनकाल के दौरान महिलाओं के कल्याण के लिए अनेक कदम उठाए थे और उन्होंने उस समय महिलाओं को हक दिलाने के लिए कानून में बदलाव तक कर दिए थे।
देवी अहिल्याबाई होलकर की तीन सौवीं जयंती के अवसर पर मध्यप्रदेश में अनेक आयोजन किए जा रहे हैं। इसी क्रम में 31 मई यानी शनिवार को देवी अहिल्याबाई की तीन सौंवी जयंती पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मौजूदगी में यहां वृहद महिला सशक्तिकरण महासम्मेलन का आयोजन किया गया है। भोपाल के जंबूरी मैदान पर आयोजित इस कार्यक्रम में राज्य के विभिन्न हिस्सों से दो लाख महिलाओं के शामिल होने की संभावना है।
ऐतिहासिक दस्तावेजों के अध्ययन से पता चलता है कि लोकमाता के नाम से विख्यात देवी अहिल्याबाई का जन्म मौजूदा महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के चौंडी गांव में 31 मई 1725 में हुआ था। उन्होंने अपने सत्तर वर्ष के जीवनकाल में अनेक उतार चढ़ाव देखे और युद्ध लड़ने के साथ ही देश के विभिन्न स्थानों पर धार्मिक स्थलों से संबंधित निर्माण कार्य व्यापक स्तर पर करवाए। भगवान शिव की उपासक देवी अहिल्याबाई की रियासत “मालवा प्रांत” थी, जहां पर उन्होंने वर्ष 1766 से 1795 तक शासन किया था। मध्यप्रदेश का मौजूदा मालवांचल उस समय के “मराठा साम्राज्य” का एक महत्वपूर्ण हिस्सा था, जो “मालवा प्रांत” के अधीन था। मालवा प्रांत की राजधानी महेश्वर थी। महेश्वर महानगर इंदौर के पास स्थित है।
दस्तावेजों के अनुसार देवी अहिल्याबाई नारी सम्मान और महिलाओं की सुरक्षा के मामले में बेहद संवेदनशील थीं। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने गांवों में नारी सुरक्षा टोलियां तक गठित की थीं। उनके महल और निजी सुरक्षा में महिला सैनिकों की टोली तैनात रहती थी।
दरअसल आज से लगभग ढाई सौ से तीन सौ वर्ष पहले महिलाओं के कोई अधिकार नहीं थे और वे काफी दयनीय स्थिति में नजर आती थीं। उस समय का कानून था कि यदि किसी महिला के पति का निधन हो जाए और उसकी कोई संतान नहीं हो, तो उस “विधवा” को घर की कोई संपत्ति नहीं दी जाती थी। संबंधित संपत्ति शासन छीन भी लेता था।
लोकमाता अहिल्याबाई ने सुधार की दृष्टि से इस कानून को ही बदल दिया। अब पति की मृत्यु या संतान नहीं होने की स्थिति में भी संपत्ति पर सिर्फ संबंधित महिला को अधिकार दिया गया। कानून में यह भी कहा गया था कि महिला अपनी संपत्ति का अपने मन के मुताबिक उसका उपयोग कर सकती थी। यहां तक कि महिला संपत्ति को बेचने या दान करने का कार्य भी कर सकती थी। महिलाओं को उस समय इस तरह सशक्त बनाने से बड़ा बदलाव महसूस किया गया और जनकल्याण तथा धार्मिक कार्य भी काफी होने लगे।
देवी अहिल्याबाई ने अपने लगभग 29 साल के शासनकाल में विभिन्न नदियों के घाटों का निर्माण कराया। अनेक धार्मिकस्थल बनवाए। वे जब भी सार्वजनिक स्थानों पर या तीर्थयात्रा पर रहती थीं, तो महिलाओं से अवश्य संवाद करती थीं। उन्हें हर तरह की मदद भी मुहैया कराती थीं। महिलाओं के काम में यदि कोई कर्मचारी लापरवाही करता था, तो वे उसे पुष्टि के बाद सजा भी देती थीं।
उनका जन्म एक साधारण सैनिक परिवार में हुआ था, लेकिन वे बचपन से ही प्रतिभावान और क्षमतावान थीं। उनकी कार्यशैली और विचार विपरीत परिस्थितियों में भी स्थिर रहने, उचित निर्णय लेने, दूरदृष्टि और संकल्प से परिपूर्ण थी। उनकी माता सुशीला बाई गांव में महिला आत्मरक्षा टोली का समन्वय का कार्य करती थीं। पिता मनकोजीराव का जीवन मराठा सेना के लिए युद्ध अभियानों में बीता।
उनकी विशिष्ट शैली से महाराज मल्हारराव होलकर काफी प्रभावित हुए और फिर अहिल्याबाई “राजवधु” बनकर इंदौर आ गयीं। धार्मिक क्रियाकलापों के कारण भी वे सभी का आकर्षण का केंद्र रहीं। हालाकि उनके जीवन में विषमताएं शायद ही कभी उनका साथ छोड़ पायीं। जब वे 29 वर्ष की थीं, तब उनके पति खांडेराव वीरगति को प्राप्त हुए। कुछ समय बाद पिता जैसा स्नेह देने वाले मल्हारराव होलकर का भी निधन हो गया। इसके बाद उन्होंने पुत्र मालेराव, दामाद और बेटी का बिछोह भी सहा। दस्तावेजों में दर्ज हैं कि वे इन विपरीत परिस्थितियों के बीच भी राजकाज, राष्ट्र और संस्कृति की रक्षा में संकल्पित और दृढ़प्रतिज्ञ थीं। इन्हीं गुणों की वजह से उनके कार्यकाल में इंदौर राज्य के चौमुंखी विकास की नींव मजबूत हो सकी।
देवी अहिल्याबाई की गाथाओं को दर्ज करने वाले दस्तावेजों के अनुसार उनकी दृष्टि में जन्म, जाति, वर्ग और वर्ण महत्वपूर्ण नहीं था। नियुक्ति या चयन आदि में वे व्यक्ति विशेष के गुण, कर्म और योग्यता को पैमाना बनाकर कोई भी निर्णय लेती थीं। उन्होंने अपने राज्य को आत्मनिर्भर और आर्थिक रूप से समृद्ध बनाने के लिए भी अनेक कदम उठाए। वे अपने राज्य की सीमाओं और प्रजा की रक्षा के लिए बेहतर योद्धा और रणनीतिकार के रूप में भी जानी जाती हैं।
बाहरी चुनौतियों के साथ ही आंतरिक गतिविधियों पर भी उनकी नजर रहती थी। इसके लिए उनका गुप्तचर तंत्र काफी सक्रिय रहता था और इसी के बूते पर उन्होंने विश्वासघातियों को समय रहते सबक सिखाया। “पुण्यश्लोका” के रूप में इतिहास में दर्ज देवी अहिल्याबाई ने अपना जीवन भारतीय परंपराओं के पोषण के लिए लगा दिया। उन्होंने इस समय की उनकी राजधानी महेश्वर में अनेक ऐसे निर्माण कार्य कराए, जो उनके गुणों को प्रकट करते हैं।
देवी अहिल्याबाई होलकर की तीन सौवीं जयंती पर 31 मई को एक बार फिर पूरा देश उन्हें अपने अपने तरीके से स्मरण कर उनके प्रति श्रद्धासुमन अर्पित करने तैयार प्रतीत होता है। मध्यप्रदेश सरकार ने उनके कार्यों का स्मरण दिलाने के उद्देश्य से राज्य में इंदौर और भोपाल समेत अनेक स्थानों पर उनके जीवन से जुड़े कार्यक्रम आयोजित किए हैं।
(साभार “वार्ता” )