
देर रात का समय। हर ओर अँधेरा है। मुझे नींद नहीं आ रही। सोचता हूं कि कैफ़ी आज़मी बन जाऊं। बोलूं, ‘आज की रात बड़ी गर्म हवा चलती है, आज की रात न फुट-पाठ पे नींद आएगी। धत तेरे की…..मैं तो घर में हूं। फिर कैफ़ी साहब के फुट-पाठ पर कैसे कब्जा कर लूं? खैर मजाज़ साहब तो हैं। चुनांचे ‘शहर की रात और मैं नाशाद ओ नाकारा फिरूँ….’ पर फोकस किया जा सकता है। मगर कम्बख्त ये शहर की रात भी मेरे सोचने को वो ‘टच’ नहीं दे पा रही है। हाँ, मजाज़ ने थोड़ा मज़ाक में मेरी खातिर ‘कहर की रात’ लिख दिया होता तो फिर बात ही कुछ और होती। साहिर साहब की याद तो आ रही है, लेकिन यह भी ख्याल आ रहा है कि वो तो, ‘वो सुबह कभी तो आएगी’ कह कर मुझे और उलझा गए।
बहुत हो गया। गए दो-चार दिन से तैयार था कि गाड़ी के लिए ईंधन बचा कर रखना है, लेकिन अब उसकी जरूरत ही नहीं है। अब तो ईंधन ही ईंधन है। बल्कि उसके भण्डार और भर जाएंगे। क्योंकि जीवाश्म से भी पेट्रोलियम पदार्थ बन सकते हैं। ऐसे 26 लोग जीवाश्म बनने के लिए देश की सेवा में समर्पित हो गए हैं और उनसे पहले कुछ हजार ने भी कई किस्म की गाड़ियों में उनकी जरूरत के मुताबिक़ ईंधन भरने के लिए खुद का बलिदान कर ही दिया है। ये कौन दुष्ट मेरे कान में कह रहा है कि उस जीवाश्म का ईंधन मेरी गाडी से पहले कई लोगों के पेट में जाएगा! खैर, अपने को क्या? अपन तो कैफ़ी, मजाज़ और साहिर को एक कोने में बिठाकर अपनी जेब की चिल्हर लेकर पेट्रोल डलवाने निकल पड़े हैं।
ये मेरी गाड़ी कहाँ रुक गई? ओह! जनाब फिरदौस मेरे सामने आ गए हैं. मुझसे कह रहे हैं, ….’हमी अस्तो हमी अस्तो हमी अस्त’ उधर बर्फ से ढकी जानलेवा पहाड़ी से मुझ तक कुछ और ही आवाज आ रही है। वर्दी पहनकर हथियार थामा हुआ कोई एक मेरा कोई मेरे एक दूसरे से कह रहा है, ‘काहे का स्वर्ग यार! एक कप चाय तो पिला दे। तीन-चार दिन से सिंदूर वाला काढ़ा पी कर अंदर पूरी गर्मी आ गई थी, लेकिन अब …. खैर गोली मार, चाय तो दे दे। तुझे गुजरात के स्टेशन की गुजरे हुए वक्त वाली चाय की कसम।’
‘गुजरात’ सुना और मैं धच्च से अपनी गाड़ी सहित कच्छ के तपते हुए रेगिस्तान में आ गया हूं। रात के बाद भी रेत की तपिश लू के थपेड़ों का आभास करा रही है। फिर वही देह पर वर्दी, हृदय में देश और हाथ में हथियार वाले दो लोग बात कर रहे हैं।
पहला- ‘ये शोर कैसा आ रहा है?’
दूसरा- ‘रात को दूर तक की आवाज हमें सुनाई दे जाती है। फिर अब तो शांति है। तो आवाज और भी साफ़ सुनाई देगी? (फिर कुछ शर्मिंदगी वाले स्वर में) और इस अशांति का गुनाह मैंने-तुमने ही किया है।’
पहला- ‘गुनाह! हमसे तो कहा गया था कि फ्री हैण्ड वाला धमाका कर दो!’
दूसरा-‘ वो छोड़! बाकी ये समझ कि ये शोर नहीं है, बल्कि बीन की आवाज है। दिल्ली आज नागपंचमी मना रही है। थोड़ा और इंतज़ार कर। शायद ये इस समय के लिए राष्ट्रीय त्यौहार घोषित कर दिया जाए।’
पहला- ‘यार! नागपंचमी पर मेरे घर में खिचड़ी बनती है …. ‘
दूसरा- ‘इस नागपंचमी पर खिचड़ी का टेंडर दिल्ली के नाम खुला है। सुना है कि वो भारी वैरायटी वाली खिचड़ी है। उसका एक-एक दाना नंगा होकर अलग-अलग साफ़ दिख रहा है। कहीं तुझे हेडगेवार चावल मिलेगा तो कहीं गोलवलकर ब्रांड का दाना भी होगा। बापू मार्का नमक जानता है ना? अरे वही, जिसे स्वाद के अनुसार इस्तेमाल किया जाता है। तो वही नमक बीच में पहचान खो रहा था, लेकिन इस खिचड़ी में उसे भरपूर तरीके से डाला गया है। बाकी इसमें ट्रंप ब्रांड के तीखे मसाले का चटखारा है और सबसे बड़ा इंग्रेडिएंट तो मेड इन चाइना है, जो दिखेगा नहीं, लेकिन वो सब जगह छिपा हुआ अपने तीखेपन का अहसास दिलाता रहेगा।’
पहला, ‘यार, तीन-चार दिन से देश के लिए लड़ते-लड़ते न भूख देखी और न प्यास, लेकिन अब भूख लग रही है। ये खिचड़ी हमें कब मिलेगी?’
दूसरा, ‘खिचड़ी तुझे और मुझे भाषणों मे परोसी जाएगी। वो लाल किले पर तेरे-मेरे लिए दो-चार वाक्य में खिचड़ी टपकाएँगे और तू और मैं यहीं बैठकर उसका स्वाद महसूस करेंगे। खिचड़ी की सबसे पहली खेप बिहार जाएगी। फिर सोशल मीडिया के ‘पेड शूरवीरों’ को उसका स्वाद लेने का मौका मिलेगा। फिर तुझे और मुझे तो उस खिचड़ी की वो तरी ही मिलेगी, जिसमें ‘भाइयों-बहनों! जय निंद की सेना’ वाला मसाला मूसल के प्रहार से कूट-कूट कर भरा गया है।’
‘यार मैं खिचड़ी का बचा-खुचा हिस्सा दही के साथ खाता हूँ’
‘रुक, मैं देखता हूँ कि यहां के किसी रेलवे स्टेशन पर चाय का कोई दूध बच गया हो तो उसका दही जमा लूँ’
ज़्यादा मसाला और बांसी दूध पेट सहित कान के लिए भी बुरा होता है, यह मुझे आज पता चला। घबराहट में जो गाड़ी दौड़ाई तो फिर पांच नदियों के तट पर ही रुक सका। उफ़! वही वर्दी और वही नपुंसक बना दिए गए उनके हथियार। क्या आपातकाल का गला फाड़कर विरोध करने वाले ‘सामूहिक ज्यादती के अंदाज में की गई नसबंदी’ के आगे भी नतमस्तक हो गए हैं? एक बार फिर गोली दागने के लिहाज से बांझ कर दिए गए असलाह को देख कर तो ऐसा ही लगता है।
वहां एक कह रहा है, ‘दुश्मन टारगेट पर है, गोली चला दूँ?’
दूसरा बोला, ‘दुश्मन छोड़, अब शांति का नोबल टारगेट पर है। चुपचाप बैठ जा। खामोश रहकर दूध की अगली खेप का इन्तजार कर।’
घबराकर मेरी नींद खुल गयी है। अब और सपना नहीं देखना। मजाज़ साहब, आप ही ‘कहर की अनगिनत रात’ लिख दीजिए। जिनके साये में फिर मज़लूम मारे जाएंगे और हम कैफ़ी वाली रात के दर्दनाक तसव्वुर में यह सोचकर सो जाएं कि अब उम्मीद की और चादर नहीं, न सही, कम से कम कफ़न का इंतजाम तो कर ही दिया गया है।

(लेखक रत्नाकर त्रिपाठी)