
ये नाहक ही चिल्लपों किसलिए? भूलना तो मानवीय स्वभाव की बेहद सहज प्रक्रिया है। अब राहुल गांधी भोपाल में अपनी दिवंगत दादी को नमन करते समय अपने जूते उतारना भूल गए, तो कौन-सी बहुत बड़ी बात हो गई? इसे राहुल के सियासी ‘लोकल गार्जियन’ में से एक सैम पित्रोदा की शैली में समझिए। जैसे पित्रोदा ने 1984 के सिख-विरोधी दंगों के लिए बेहद आसान उपाय सुझाया था कि ‘जो हो गया, सो हो गया।’ वैसे ही राहुल से भी भोपाल में जो हो गया, सो हो गया। फिर ये दिवंगत दादी और जीवंत पोते के बीच की आपसी अंडरस्टैंडिंग है। इससे आपको क्या? और इस बात से भी आपका पेट क्यों मरोड़ें भर रहा है कि राहुल ने बड़े ही बेतकल्लुफ अंदाज में एक हाथ से दादी को ‘फूल गेंदवा न मारो, लगत करेजवा में चोट’ वाले अंदाज में फूल फेंककर आदरांजलि अर्पित कर दी? हद है भाई! जब ऐसा होते समय इंदिरा जी के नाम की माला जपने वाले कांग्रेस के लोगों को ये बात नहीं खली तो विरोधी कैंप में खलबली का क्या तुक रह जाता है?
ऐसी हर बात में सियासत उचित नहीं है। मैं तो इसकी घोर निंदा करता हूं। क्योंकि आपको तो बाल की खाल निकालने से ही मतलब है। यदि राहुल जूते निकाल लेते तो आप कहते कि उन्होंने जूते छूने के बाद हाथ धोए बगैर ही पुष्पांजलि और श्रद्धांजलि कार्यक्रम निपटा दिया। ज़रा सोचिए कि यदि गांधी ने अपने जूते उतारने का उपक्रम भी किया होता तो फिर क्या हो सकता था! जनाब वहां खड़े गाँधी-नेहरू के समर्पित सिपाहियों के बीच राहुल के जूते उतारने के लिए वर्ग संघर्ष की स्थिति बन जाती। कोई एक जूता उतारता। उसे अपने गाल से चिपकाकर उसके साथ सेल्फी लेता। तो कोई दूसरा भीष्म प्रतिज्ञा ले लेता कि अब वो आजन्म मुंह नहीं धोएगा। क्योंकि उसके होठों पर बाबा के जूतों की धूल ने धूनी रमा ली है। न जाने कितने ही लोग वहां उन जूतों को निहारते-निहारते खुद को त्रेता युग में भरत को रिप्लेस कर स्वयं खड़ाऊ की पूजा करने का सपना देखने लगते। इसलिए हे क्षुद्र सियासी स्वार्थ वाले नादानों! राहुल की निंदा करने के टुच्चेपन से उबरो और देखो कि एक जोड़ी न उतरे जूतों ने भोपाल शहर को कितने बड़े ‘चरण पादुका’ संग्राम की विभीषिका से बचा लिया।
अरे! तुम तो कुढ़ो उन पुण्यार्थियों से, जो आज के बाद कई दिन तक जूतामय के स्वर्गीय सुख में डूबे रहेंगे।
दोस्त मिला तो कहेंगे, ‘तूने वो जूते देखे थे?’ दोस्त आजन्म के लिए अपराध बोध से भर जाएगा कि इंदिरा जी की प्रतिमा को निहारते ही रह गया और जूते न देख सका।
पत्नी पड़ोसनों से कहेगी, ‘हमारे इन्होने तो एकदम पास से जूते देखे।’ पड़ोसन जल-भुन कर राख हो जाएगी। गुस्से में कई दिन पति से बात नहीं करेगी।
जूते की औकात ही क्या है? हम चाहें तो पहने, चाहे तो उतारकर फ़ेंक दें। उतारना भूल गए तो क्या हुआ? भूल तो राजीव जी भी गए थे। लालकिले की प्राचीर से ‘स्वतंत्रता दिवस’ को ‘गणतंत्र दिवस’ कह गए थे। तब एक पत्रिका ने किसी संदर्भ का जोखिम उठाए बगैर कार्टून छापा था। उसमें एक किरदार दूसरे से गुस्से में कह रहा है, ‘तो क्या हो गया! उन्होंने दिवस को तो दिवस ही कहा था ना!’ कभी-कभी कार्टून भी इस तरह की भूल को जस्टिफाई कर देते हैं। ऐसे हर मौके पर भूलने वाले के लिए कोई कार्टून ही ‘बेहद अपना-सा’ बन जाता है। वो पत्रिका अब भी छपती है। तो राहुल जी को भी किसी ‘बेहद अपना-सा’ की तलाश में परेशान होने की बजाय उस पत्रिका के आगामी अंक का इंतजार करना चाहिए। क्योंकि कार्टून तो वैसे ही छपते रहते हैं, जैसे जूते उतारे और पहने जाते हैं।

(लोकदेश के लिए रत्नाकर त्रिपाठी)