Monday, June 9, 2025
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क्योंकि मैं जलन में डूबा हुआ हूँ

लगभग पैंतीस साल हो गए हैं इस बात को। उन सज्जन का नाम नहीं पता। ‘सरिता’ में उन्होंने एक आलेख लिखा ही नहीं, बल्कि रचा था। उस समय यह हुआ कि हॉलीवुड की कई उत्कृष्ट फिल्मों को नए प्रिंट के साथ रिलीज किया जा रहा था। उन साहब ने ऐसी ही एक फिल्म का हवाला देते हुए लिखा, ‘अमेरिका में देखते समय उसके अंत में मैं और मेरी पत्नी एक-दूसरे का हाथ पकड़कर रो पड़े थे।’ उनकी पीड़ा नहीं, बल्कि यह चिंता थी कि सालों-साल बाद उन फिल्मों को क्या उन और उनकी पत्नी जैसा वही ‘ट्रीटमेंट’ कोई दे सकेगा? 

(लेखक रत्नाकर त्रिपाठी )

कान्स फिल्म फेस्टिवल से जुड़े समाचार पढ़ते समय आज की तारीख तक मैं लगभग निस्पृह था। लेकिन आज खबर पढ़ी। तस्वीर देखी। खबर कह रही है कि दिवंगत सत्यजीत रे साहब की ‘अरण्येर दिन रात्रि’ के लिए वहाँ दर्शकों ने खड़े होकर तालियां बजाईं। फिर वो तस्वीर भी देखीं, जिनमें शर्मीला टैगोर और सिमी ग्रेवाल जी इस फिल्म की स्क्रीनिंग के समय वहां थीं। यहीं से मेरे भीतर एक जलन की भावना लगातार पनप रही है। क्योंकि मैं चाहता हूं कि उस समूह का हिस्सा बनूँ, जो इस देश का न होने के बाद भी जानता है कि रे की एक और उस महान कृति के रूप में वो क्या देखने जा रहा है। बात देशी या विदेशी की नहीं है। बात यह कि क्या मुझे वह माहौल कभी मिल पाएगा, जो कान्स में रे के उस चलते-बोलते चित्र के लिए दिखा? 

मैं सीमा में जकड़ा हुआ हूँ। और मेरे लिए वह मेरा फिल्मों को लेकर दुर्भाग्य भी है। भोपाल के रवींद्र भवन में एक समय पर पोलिश फिल्मों का प्रदर्शन किया गया। चूंकि प्रदर्शन मुफ्त का था, तो फिर मामला जल्दी ही ‘चिल्लर छाप’ का भी हो गया। उस समय भोपाल के सबसे बड़े कलंक में शामिल एमएसीटी के लड़कों ने वहां आकर वह हुड़दंग मचाया कि फिल्म का प्रदर्शन रोकना पड़ा। वजह केवल यह कि सेंसर बोर्ड से पास होने वाले कई दृश्य ऐसे भी थे, जो उन हुड़दंगियों की गुदगुदाहट के प्रतीक बन गए। उन्हें ‘पोलिश किचन’ की उत्कृष्टता से कोई लेना-देना नहीं था। वो लंपट इस बात की गुंडागर्दी पर आमादा थे कि वो सीन फिर दिखाए जाएं।

ऐसा अनगिनत बार हुआ। इसी रवींद्र भवन में बिमल राय की फिल्मों पर केंद्रित विशेष आयोजन रखा गया। उनमें से ‘देवदास’ भी एक थी। उस समारोह के लिए टिकट सहित पास भी दिए गए थे। एक स्वयंभू सज्जन उन दिनों एक अख़बार के लिए काम करते थे। चुनांचे ‘स्वयंभू’ कला समीक्षक बनकर अंदर आ धमके। साथ चार चेले भी थे। इधर फिल्म में कोई संवाद आए और उधर उनकी मिमिक्री का घटिया कौशल सामने आने लगे। इन घटिया महाशय वाली मानसिकता का असर तब भी देखा , जब एक सिनेमाघर में ओम पुरी की ‘आक्रोश’ देखने गया। वो उथली मानसिकता  फिल्म देखने की बजाय एक ‘रोमांटिक सीन’ को फिर से दोहराने की ही मांग कर रही थी।

ये चीथड़े-चीथड़े मानसिकता वही है, जो स्मिता पाटिल जी की ‘चक्र’ देखने के लिए सिर्फ यूं  आ धमकती है कि उसमें एक हॉट सीन है। बाकी उन्हें फिल्म से कोई लेना-देना नहीं है। उसकी समझ तो खैर उन्हें संस्कारगत विसंगतियों के चलते छू कर भी नहीं जाती है। ये भी मेरा सच्चा अनुभव है कि नसीरुद्दीन शाह की एक बेहतरीन फिल्म ‘आधारशिला’ को देखकर बाहर आते हुए लोगों में से स्वर उठता है कि ‘नीना गुप्ता का साइकिल पर बैठा सीन था तो जोरदार, लेकिन सालों ने एक सेकंड में ही उसे ख़त्म कर दिया।’ और ये वही निहायती शोचनीय लोग हैं, जो ‘आस्था’  जैसी बासु भट्टाचार्य की फिल्म को ‘रेखा का सिरोक्को’ कहकर बुलाने की निर्लजता में खुद का गौरव महसूस करते हैं। 

इन तमाम वाहियात अनुभवों के बीच यही लगता है कि काश! आज कान्स में होते। उस समूह का हिस्सा, जो सत्यजीत रे को दिल से समझ रहा है। जिसने उस फिल्म के बीच अपने मोबाइल फोन के व्हाट्सएप्प मैसेज नहीं बांचे होंगे। वो दर्शक, जिन्होंने सिमी ग्रेवाल  जी को उस फिल्म में दिखाए गए मादक चरित्र के हिसाब से देखकर उन्हें ‘भोग’ की वस्तु की जगह उत्कृष्ट अभिनेत्री वाला सम्मान ही दिया होगा। विवशता के सारे बंधन तोड़कर आज सचमुच कान्स जाने का मन  कर रहा है। वो तो इस जीवन में मुमकिन नहीं है। हाँ, आरंभ में बताए गए वो सज्जन कहीं मिल जाएं, बस यही कामना है। क्योंकि वो मेरी बात समझ सकेंगे। ‘सरिता’ में लिखे उस लेख की सरिता मुझे बहा कर उन सज्जन तक ले जा सकेगी क्या? क्योंकि मैं जलन में डूबा हुआ हूँ और वो सरिता का पानी ही मुझे कुछ राहत दे सकता है।