Ratnakar Tripathi

‘कुंवर जी! ये क्या कर दिया आपने…! उफ़! हरसूद तो डूबते-डूबते काफी-कुछ बच गया, लेकिन लोग कह रहे कि आप डूब…’
‘ये क्या बकवास है! तुम भी लोगों की बातों में आ गए? न कुछ हुआ है और न ही कुछ होगा। अब चुपचाप बैठो। देख नहीं रहे हम ताश खेल रहे हैं?’
‘ताश! मगर कुंवर जी पत्ते कहाँ हैं?’
‘तुम रहे वही गंवार। ये अलग किस्म का ताश है। इसके पत्ते अपने दिमाग में बिठाकर सामने वाले के दिल तक पहुंचाए जाते हैं। इसे वर्चुअल ताश कहते हैं।’
‘तो कुंवर जी। ये ताश आप किसके साथ खेल रहे हैं?’
‘वो तेरे दिमाग के लेवल से ऊपर की बात है और मेरे कद के लेवल से ऊपर की भी।’
‘और इस खेल में अभी आपकी हालत कैसी है?’
‘तगड़ी। क्योंकि ट्रंप कार्ड तो मेरे पास ही है।’
‘आपकी जय हो। मैं जानता था कि आप एक बार फिर करिश्मा कर दिखाएंगे। वैसे कुंवर जी, ये ‘करिश्मा’ और ‘करतूत’ के बीच का अंतर ख़त्म करने में अभी कितना समय बचा है?’
‘फालतू सवाल मत करो। वैसे भी लोग हमारी बात समझ नहीं पाते हैं। कहो कुछ और वो उसका कुछ और ही मतलब निकाल लेते हैं। इसलिए फिलहाल हम चुप हैं। तू ये बता कि हमारे लिए खुजली की वो दवा लाया है या भूल गया?’
‘लाया तो हूँ कुंवर जी। लेकिन उसे मत इस्तेमाल कीजिए। बहुत तेज असर करती है। आपने उसे जीभ पर लगाया तो कहीं ये दवा वहाँ भी जख्म न कर दे।’
‘दिमाग ख़राब है तेरा! जीभ पर क्यों लगाऊंगा!’
‘ जी, वो मुझे लगा कि इस समय इस दवा की आप की जीभ को ही जरूरत होगी, इसलिए…’
‘अबे गदहे! जीभ नहीं, हथेली के लिए दवा की जरूरत है। उस दिन का वो मनहूस माइक जब से पकड़ा, तब से पूरे हाथ में जलन और खुजली हो रही है। बेड़ागर्क हो माइक वालों का। मैंने बोला कुछ और साले माइक ने कह कुछ और दिया। वरना तू तो जानता ही है कि मैं कितना शंश्कारी हूं।’
‘कुंवर जी, आपके संस्कार तो बहुत ही पहुंचे हुए हैं। बहुत ही पराक्रमी किस्म के। लेकिन ये शंश्कार क्या होता है?’
‘ ये हमारा लेटेष्ट श्टायल है। जितना ‘श’ बोलो, जुबान पर उतना ही अधिक शकर वाला मीठापन आ जाता है।’
‘अरे वाह! ये ज्ञान आपको कहाँ से मिला?’
‘अरे नादान! एकांत की तपस्या में बहुत शक्ति होती है। अंडरग्राउंड रहने के लिए मैंने नर्मदा किनारे की एक गुफा चुनी। बस वहीं मुझे यह शकर वाला ज्ञान मिल गया।’
‘मगर, आप तो फिर से ‘स’ को ‘स’ बोलने लग गए…”
‘बच्चू! कंबल पर सफ़ेद रंग चढ़ना है। प्रोसेस में टाइम तो लगता ही है।’
‘ सो तो सही कही कुंवर साहब! अब करेले के जूस को मीठा बनाने के लिए चमत्कार का इन्तजार तो करना ही होगा। वैसे करेले से याद आया, कोई कह रहा था कि जबलपुर से लेकर दिल्ली तक कई दुश्मन आपको करेले के पराठे खिलाने के लिए उतावले हो रहे हैं।’
‘कौन कम्बख्त ऐसा कह रहा था?’
‘कुंवर जी, अब नाम तो याद नहीं है, लेकिन जिसने भी कहा वो ये भी बोला कि आपका इलाज करने के लिए ऐसा किया जाना बहुत जरूरी है।’
‘अबे! क्या बेवकूफी है ये!! मुझे भला कौन-सी बीमारी हो गई है? किस बात का इलाज चाहिए?’
‘ जी, जान की सलामती चाहता हूं, लेकिन वो कोई जीभ वाली बवासीर की बात कह रहे थे। लेकिन मैंने भी साफ़ कह दिया कि हमारे कुंवर साहब को ऐसी कोई बीमारी नहीं है।’
‘एक सेकंड रुक। ज़रा मेरे पास आ। ये तेरे माथे पर काला रंग क्यों लगा हुआ है?’
‘ ये भी चमत्कार ही है हुजूर। जब लोग आपकी बीमारी को लेकर बड़े गुप्त किस्म के इशारे कर रहे थे, तब मैंने प्रभु से कामना की कि हमारे कुंवर जी को ठीक कर दो। ये प्रार्थना करते-करते मैं अपनी धुन में कहाँ तक आ गया, कुछ पता ही नहीं चला। अचानक तेज आवाज से मेरी तपस्या भंग हुई। मैंने देखा कि मैं रेलवे लाइन के किनारे खड़ा हूँ। वहां की दीवार पर मोटे-मोटे, काले-काले अक्षरों में लिखा हुआ था ‘लिखें या मिलें।” बस में समझ गया कि प्रभु ने आपके लिए मेरी प्रार्थना सुन ली है। ये उनका ही संदेश है। तो मैंने उसी दीवार पर पूरी श्रद्धा के साथ माथा टेक लिया था।’
“अबे सुन! तू भी नारीवादी हो गया है क्या!’
‘ नहीं हुकुम नहीं! मैं तो हमेशा की ही तरह आपका नाड़ावादी हूँ।’
‘तो फिर क्यों तब से नारीवादी वाली बात कर रहा है? तेरी औकात ही क्या है! अबे यहां बैठे-बैठे मैंने सिंदूर वालियों के सम्मान को एक झटके में विधवा कर दिया। तो तू तो मेरे सामने ही है। मैंने तुझ पर थूक भी दिया तो तेरा पूरा जिस्म नीला पड़ जाएगा। तू अभी ठीक से जानता नहीं है मुझको।’
दरबारी जान बचाकर उस जगह से भागा। बाहर के रास्ते में उसे सीनियर दरबारी टकराया। उसके हाथ में ताश के पत्ते थे। जूनियर ने पूछा-
‘ये ताश लेकर कहाँ जा रहे हो?’
‘ये कुंवर जी के लिए हैं। उन्हें टाइम पास करना है। उन्हें अच्छे दिन लौट कर आने पर पूरा भरोसा है।’
‘लेकिन वो तो दिमाग से ताश खेल रहे थे। किसी ट्रंप कार्ड के भरोसे।’
‘वह कार्ड उन्होंने चल दिया है। उसे जाति वाला ट्रंप कार्ड कहते हैं। अब जब तक वो कार्ड सारे विरोध को ताश के महल की तरह गिरा नहीं देता, तब तक कुंवर साहब इन पत्तों से खेलकर दिल बहलाएंगे। वैसे कुंवर साहब अंदर हैं ना?’
‘कुंवर साहब का तो नहीं पता, लेकिन अंदर तुअर जरूर है।’
‘तुअर! क्या मतलब? कौन-सी तुअर?’
‘अरे वही जिसके सेवन से भयानक तरीके से गैस बनती है और उसी गैस से घबराकर बाहर भाग आया हूँ। मेरी मान तो ताश के पत्ते फेंक दे और मेरे साथ निकल ले। इस वाली तुअर की ये गैस भोपाल की यूनियन कार्बाइड वाली गैस से भी अधिक खतरनाक है।’
सीनियर दरबारी बात समझ गया। उसने पत्ते वहीं फेंके। फिर जूनियर के साथ पास की रेलवे लाइन की तरफ चला गया। वहां की दीवार पर सूरज की रोशनी में एक और वाक्य चमक रहा था, ‘गुप्त रोगी निराश न हों।’ सीनियर और जूनियर ने कुंवर जी के शीघ्र और संपूर्ण स्वास्थ्य लाभ की भावुक आशा के साथ दीवार पर माथा टिका दिया। अब दोनों के माथे पर काले दाग का सौंदर्य साफ़ देखा जा सकता था।
(रत्नाकर त्रिपाठी)