
कहानी है या सच है… पता नहीं। लेकिन है सच के बहुत अधिक आसपास। ग्रामीण इलाके में एक साहब का पुश्तों से चला आ रहा दबदबा बीते कल की बात हो चुका था। रस्सी जल गई थी, मगर बल नहीं गए थे। इसलिए वो जनाब एक दिन इस बात को प्रतिष्ठा का प्रश्न बना बैठे कि गांव का एक आदमी उनके घर के सामने से तनी हुई मूछों के साथ गुजरता है। उन्होंने उस आदमी को रोका। उसे धमकी दी कि मूंछ नीची कर ले, या फिर मरने-मारने को तैयार रहे। सामने वाला आदमी सीधा-सादा था। लेकिन आत्मसम्मान उसके भीतर भी था। उसने मूंछ नीची करने से इंकार कर दिया। फिर क्या था, उन साहब ने उस आदमी को तलवार का मुकाबला करने की चुनौती दे दी। वो आदमी तलवार लेने घर चला गया। अब चुनौती देने वाले को लगा कि बात गंभीर है। हो सकता है कि इस संघर्ष में उसकी जान चली जाए। उसे अपने पीछे रह जाने वाले अपने बीवी-बच्चों की चिंता हुई। इसलिए वह घर गया और उसने अपनी पत्नी और बच्चों को मार डाला। इधर, वह सीधा-सादा आदमी वापस आया। बोला, ‘मैंने बहुत सोचा और पाया कि क्यों नाहक झगड़ा किया जाए? इसलिए लड़ाई छोड़िए। मैंने तय किया है कि अब आपके घर के सामने से गुजरते समय खुद ही अपनी मूंछ नीची कर लिया करूंगा।’ घर के भीतर उस अकड़ से भरे आदमी के परिवारजनों की लाशें बिछी थीं और अब घर के बाहर उसका चरम मूर्खता में लिपटा हुआ अँधा घमंड भी दम तोड़ रहा था।
छत्तीसगढ़ भी इस समय ऐसे ही हालात का अकारण सामना कर रहा है। पड़ोसी राज्य तेलंगाना के कांग्रेसी मुख्यमंत्री रेवंत रेड्डी को जैसे अपनी मूंछों की चिंता खाए जा रही है। वो बिलबिला रहे हैं कि किसलिए छत्तीसगढ़ की सरकार उनके राज्य की सीमा में नक्सलियों का सफाया करती जा रही है। तेलंगाना के ही पूर्व मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव की पीड़ा का भी यही हाल है। दोनों के निशाने पर छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय हैं। साय के राज्य में चल रहा नक्सल विरोधी महा-अभियान ‘ऑपरेशन कगार’ नक्सलवाद को कमर टूटने की कगार पर ले आया है। चुनांचे रेड्डी और राव महाशय विष्णुदेव साय की डबल इंजन सरकार और सुरक्षाबलों की इस सफलता से मानसिक आंत्रशोथ के शिकार हो गए दिखते हैं। रेड्डी तो यह भी कह चुके हैं कि उनके लिए नक्सलवाद कानून-व्यवस्था की समस्या नहीं है। इसलिए छत्तीसगढ़ के इस ऑपरेशन से पीड़ित नक्सली उनके पास मदद के लिए आने को स्वतंत्र हैं। राजनीतिक स्वार्थों के ऐसे घनघोर शर्मनाक उदाहरण की निंदा के लिए उचित शब्द तलाशना स्वयं की कलम को कलंकित करने जैसा काम ही होगा। लेकिन इतना तो कहा ही जा सकता है कि रेड्डी और राव का आचरण शुरू में बताई गई कहानी के उस सनकी पात्र से अलग नहीं है। क्योंकि उनकी पीड़ा इस बात के लिए अधिक दिखती है कि आखिर कैसे छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मंशा के अनुरूप नक्सलियों के सफाए के लिए खुद को निर्णायक जीत के मुहाने पर ला खड़ा कर दिया है। साय को तो खैर किसी भी किस्म का घमंड छू-कर भी नहीं गया है। इसलिए यह कल्पना भी नहीं की जा सकती कि अनाचारी सोच के खिलाफ इतनी बड़ी उपलब्धि के बाद भी वो मूंछे तानने वाले अंदाज में मगरूर हो गए होंगे। लेकिन ऐसी तनी हुई मूंछ का काल्पनिक चित्र ही तेलंगाना के वर्तमान और पूर्व मुख्यमंत्री को जिस तरह खाए जा रहा है, वह गौरतलब है। क्योंकि इससे साफ़ है कि ये दोनों महाशय नक्सली समस्या के निदान की ‘आशंका’ मात्र से सिहर उठे हैं। दुर्दांत आततायी सोच को संरक्षण देने वाली बात किस घातक निजी स्वार्थ से प्रेरित है, यह अलग से समझाने की जरूरत नहीं है। तेलंगाना के कुल 33 में से सात जिले नक्सलियों का गढ़ हैं। इस राज्य का सबसे बड़ा जिला भद्राद्री कोठागुण्डम आज भी भीषण रूप से नक्सलवाद का दंश झेल रहा है। अविभाजित आंध्रप्रदेश के समय से लेकर अब तक नक्सली यहां अनगिनत खूनी वारदातों को अंजाम दे चुके हैं। वो छत्तीसगढ़ सहित सीमावर्ती महाराष्ट्र में भी घुसकर अशांति फ़ैलाने से बाज नहीं आते हैं। इन माओवादियों के चलते इन राज्यों के सुदूर इलाकों में रहने वाली बहुत बड़ी आबादी आज भी विकास की मुख्य धारा से अलग-थलग रहने को मजबूर है। यह न तो रेड्डी से छिपा है और न ही राव से। दोनों हजरत यह भी देख ही रहे हैं कि किस तरह विष्णुदेव साय जैसी दृढ़ इच्छा शक्ति से इस समस्या को कुचला जा सकता है। यानी समस्या सुरसा के मुंह की तरह सामने है और निदान भी छत्तीसगढ़ में ‘कवन सो काज कठिन जग माहीं…?’ वाले अंदाज में साफ़ दिख रहा है, लेकिन तेलंगाना के नेता इस सबको देखने की बजाय आँख पर पत्थर का चश्मा पहनकर बैठ गए हैं, तो क्या किया जा सकता है?
विष्णुदेव साय ने बेहद सभ्य किंतु सख्त अंदाज में रेवंत रेड्डी को याद दिला दिया है कि किस तरह नक्सली मानवता सहित समूचे विकास के दुश्मन हैं। साय ने इस मामले में कोई हठ नहीं पाला है। उनकी सरकार आत्मसमर्पण करने वाले नक्सलियों को मुख्य धारा में वापस लाने के लिए कई बड़े कदम सफलतापूर्वक उठा चुकी है। लेकिन इसके साथ ही साय की उनके लिए कोई सहानुभूति नहीं है, जो यहां नक्सलवाद के तेजी से बुझते दावानल को अपने शर्मनाक स्वार्थ/मंसूबों के पेट्रोल से फिर भड़काने की कोशिश कर रहे हैं। फिर हालात की ऐसी तस्वीर में रेवंत रेड्डी और के चंद्रशेखर राव प्रमुख रूप से नजर क्यों न आते हों। विष्णुदेव साय अपना अकारण विरोध कर रहे ऐसे नेताओं के खिलाफ तलवार भांजने में समय बर्बाद करने की बजाय ‘ऑपरेशन कगार’ के जरिए उन्हें जोरदार मुंहतोड़ जवाब दिए चले जा रहे हैं।
तेलंगाना के ये नेता और उनके सुर में सुर मिलाने वाले लोग नक्सलियों को पनाह देने की बात करके वह हालात ही पैदा कर रहे हैं, जिनकी परिणीति शुरू में बताई गई कहानी वाले घर में बिछी बेगुनाह लाशों वाले भयावह चित्र के रूप में सामने आएगी, इसमें कोई शक नहीं है। हाँ, पड़ोस से मिल रही इन गीदड़भभकियों के बीच विष्णुदेव साय अपने अटल इरादों के साथ भले ही मूंछ ऊंची करने वाले दंभ से कोसों दूर हों, लेकिन वो नक्सलियों की ढीली पड़ती हुई मूछों के ऊपर उनकी कटी हुई नाक और झुके हुए माथे वाले आशाजनक वातावरण के निर्माण की पूर्णाहुति की दिशा में बहुत आगे आ चुके हैं। पुरानी कई कहानियों में किसी राक्षस की जान तोते में होने की बात कही जाती थी। यानी राक्षस को मारना हो तो तोते को ख़त्म कर दो। रेड्डी और राव भले ही तोता न हों, लेकिन नक्सलियों को लेकर वो अपनी निजी महत्वाकांक्षाओं के पिंजरे में जिस तरह फड़फड़ा रहे हैं, वह बहुत कुछ कहता है और यह भी कहता है कि तोते की गर्दन अब विष्णुदेव साय की पकड़ से अधिक दूर नहीं है।
(लेखक-तेजभान पाल)
(लोकदेश में संपादक तेजभान पाल के प्रति सोमवार प्रकाशित कॉलम ‘एक्स-रे’ से लिया गया आलेख)