
दक्षिण के राज्य तमिलनाडु में प्रेमी युगल को प्यार करने की दिल दहला देने वाली सजा दी गई. उन्हें जहर पीकर जान देने पर मजबूर किया गया. साल 2003 की इस वारदात के दोषियों को अब सजा मिलने का रास्ता साफ हो गया है. सुप्रीम कोर्ट ने मामले के सभी 11 दोषियों की दोष सिद्धि (कन्विक्शन) को बरकरार रखा है.
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि झूठी शान (ऑनर किलिंग) के नाम पर कानून हाथ में लेने वालों को कड़ी से कड़ी सजा मिलना चाहिए।
न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया और न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार मिश्रा की पीठ ने मद्रास उच्च न्यायालय के जून 2022 के उस फैसले में हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया, जिसमें दो पुलिस अधिकारियों सहित आरोपी व्यक्तियों की दोषसिद्धि और सजा को बरकरार रखा गया था।
पीठ ने कहा कि मुरुगेसन और कन्नगी, जिनकी आयु 20 वर्ष से कुछ अधिक थी, को बड़ी संख्या में ग्रामीणों की मौजूदगी में जहर देकर मार दिया गया। पीठ ने कहा कि इस ‘‘भयावह कृत्य’’ को अंजाम देने वाले कोई और नहीं, बल्कि युवती के पिता और भाई थे।
शीर्ष अदालत ने पाया कि हत्या का कारण यह था कि कन्नगी ‘‘वन्नियार’’ समुदाय से थी, जबकि मुरुगेसन दलित था और कुड्डालोर जिले के उसी गांव का रहने वाला था।
इस जोड़े ने मई 2003 में गुप्त रूप से विवाह कर लिया था।
पीठ ने अपने 73 पन्नों के फैसले में कहा, ‘‘इसतरह, इस अपराध का कारण भारत में गहराई तक अपनी जड़ें जमाई हुई जाति प्रथा है और इस सबसे अपमानजनक कृत्य को ‘ऑनर किलिंग’ के नाम से जाना जाता है।’’
पीठ ने मुरुगेसन के परिजनों को 5 लाख रुपए का मुआवजा देने का आदेश दिया और कहा कि यह राशि तमिलनाडु सरकार द्वारा भुगतान की जानी चाहिए। यह राशि सत्र न्यायालय और उच्च न्यायालय द्वारा मुआवजे के रूप में भुगतान करने के लिए निर्देशित राशि से अधिक है।
पुलिस अधिकारियों की भूमिका पर पीठ ने कहा कि दोनों पुलिस कर्मियों ने भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 217 और अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के तहत अपराध किए हैं, क्योंकि उन्होंने अपने कर्तव्यों की उपेक्षा की और दोषियों को बचाने के इरादे से पहली बार में प्राथमिकी दर्ज न करके कानून की अवहेलना की। पूर्ववर्ती आईपीसी की धारा 217 किसी व्यक्ति को सजा से बचाने या संपत्ति को जब्त होने से बचाने के इरादे से लोक सेवक द्वारा कानून की अवहेलना से संबद्ध है।
पीठ ने कहा कि मुरुगेसन के परिवार ने उच्च न्यायालय का रुख किया, जिसने अप्रैल 2004 में जांच सीबीआई को सौंपने का निर्देश दिया।
हालांकि, यह घटना जुलाई 2003 में हुई थी, लेकिन मुकदमा सितंबर 2021 में समाप्त हुआ।
फैसले में कहा गया, ‘‘मामले में प्राथमिकी दर्ज होने से लेकर अब तक जो अत्यधिक देरी हुई है, वह एक तरफ अभियोजन पक्ष की घोर अक्षमता और दूसरी तरफ बचाव पक्ष द्वारा अपनाई गई टालमटोल की रणनीति को दर्शाती है, जिसके कारण मुकदमा धीमी गति से चला।’’ गवाहों का मुकर जाना इस मामले के प्रमुख घटनाक्रमों में से एक था।
पीठ ने कहा कि गवाहों के मुकर जाने के कई कारणों में से एक कारण मुकदमे में होने वाली लंबी देरी है।
न्यायालय ने कहा, ‘‘यह दुर्भाग्यपूर्ण है, लेकिन हमारे देश में यह सच है, और निचली अदालत द्वारा मामले में फैसला सुनाने में 18 साल लग गए।’’ पीठ ने मामले में जमानत पर जेल से बाहर लोगों को दो सप्ताह के भीतर आत्मसमर्पण करने का निर्देश दिया, ताकि वे अपनी शेष सजा काट सकें।
मामले में मुकदमे का सामना करने वाले कुल 15 आरोपियों में से 13 को दोषी करार दिया गया। वहीं, 13 में से 11 को हत्या के लिए दंडित किया गया और एक दोषी को निचली अदालत ने मौत की सजा सुनाई, जबकि बाकी को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई।
उच्च न्यायालय ने दो आरोपियों को बरी कर दिया था।
निचली अदालत ने दो पुलिस अधिकारियों को भी दोषी करार दिया था और दोनों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी। पीठ ने कहा कि उच्च न्यायालय ने मृत्युदंड को आजीवन कारावास में बदल दिया। वहीं, एक पुलिस अधिकारी की सजा में बदलाव किया गया और उसकी जेल की सजा को घटाकर दो साल कर दिया गया, जबकि दूसरे पुलिसकर्मी की सजा और दोषसिद्धि को उच्च न्यायालय ने बरकरार रखा।
(लोकदेश डेस्क/एजेंसी। नई दिल्ली/चेन्नई)